Thursday, January 9, 2020

                    शोथ निदानम्
संदर्भ :
चरकः सू . १८ , चि . १२
सुश्रुतः सू . १७ , चि . २३
अ . हृदय , अ . संग्रहः नि . १३
मा . नि . : ३६
क्षतक्षीण और शोथ ये दोनों व्याधी मर्मोपघातजन्य होने के कारण क्षतक्षीण के बाद चरकाचार्यने शोथ का वर्णन किया है ।
पांडुरोग का मुख्य उपद्रव शोथ को मानने के कारण अ . हृदयकारने पांडुरोग के बाद शोथ का वर्णन किया है ।
शोथ की निरुक्ति :
गति अर्थ वाले टुओश्चि धातु से अथुच् प्रत्यय जोडने से शोथ शब्द उत्पन्न होता है |
शोथ के पर्याय :
शोथ , शोथक , शोफ , श्वयथु ये शोथ के पर्यायी शब्द है ।
शोथ की व्याख्याः
उत्सेधं संहतं शोफ तमाहुः निचयादतः । मा . नि . बाह्य त्वचा और मांस के आश्रय से संचित दोष दूष्यों के कारण उत्पन्न हुए संहत स्वरुप के उत्सेध को शोथ कहते ।
निज शोथ के हेतू :
निजाः पुनः स्नेहस्वेदवमनविरेचनास्थापनानुवासनशिरोविरेचनानाम वा छलसकविसूचिकाश्वासकासातिसारशोषपाण्डुरोगोदर भगन्दरार्थोविकारातिकर्शनैर्वाकुष्ठकण्डूपिडकादिभिर्वा छर्दिक्षवथूगारशुरुवातमूत्रपुरीष वेगधारणैर्वा कर्मरोगोपवासाकर्शितस्य वा सहसातिगुर्वम्ललवणपिष्टान्नफलशाकरागदधिहरितकम
कर्मरोगोपवासाकर्शितस्य वा सहसातिगुर्वम्ललवणपिष्टान्नफलशाकरागदधिहरितकम मृत्पङ्कलोष्टभक्षणाल्लवणातिभक्षणाद् गर्भसम्पीडनादामगर्भ प्रपतनात् प्रजातानां च मिथ्योपचारादुदीर्णदोषत्वाच्च शोफाः प्रादुर्भवन्ति ; इत्युक्तः सामान्योहेतुः । ।
                                                     ( च . सू . १८ / ६ )
 शुद्ध्यामयाभुक्त - कृशाबलानां क्षाराम्लतीक्ष्णोष्णगुरुपसेवा । दध्याममृच्छाकविरोधिदुष्टगरोपसृष्टान्ननिषेवणं च अर्शास्यचेष्टा न च देहशुद्धिर्मर्मोपघातो विषमा प्रसुतिः । मिथ्योपचारः प्रतिकर्मणां च निजस्य हेतुः श्वयथोः प्रदिष्टः । ।                                                   ( च . चि . १२ / ५६ )
 तत्रापतर्पितस्याध्वगमनादतिमात्रमभ्यवहरतो वा पिष्टान्नहरितशाकलवणानिक्षीणस्यवाऽतिमात्रमम्लमुपसे मृत्पक्वलोष्टकटशर्करानूपौदकमांससेवनादजीर्णिनो वाग्राम्यधर्मसेवनाविरुद्धाहारसेवनात् वा हस्त्यश्वोष्ट्ररथपदातिसङ्क्षोभणादयोसितस्य दोषा धातून् प्रदूष्य श्वयथुमापादयन्त्यखिले शरीरे | |
                                                                                                           ( सु . चि . २३ / ४ )
सामान्यहेतुः शोफानां दोषजानां विशेषतः । । व्याधिकर्मोपवासादिक्षीणस्य भजतो दुतम् । अतिमात्रमथान्यस्य गुर्वम्लस्निग्धशीतलम् । । लवणक्षारतीक्ष्णोष्णशाकाम्बु स्वप्नजागरम् । मृद्ग्राम्यमांसवल्लूरमजीर्णश्रममैथुनम् । । पदातेर्मार्गगमनं यानेन क्षोभिणाऽपि वा । श्वासकासातिसारार्शोजठरप्रदरज्वराः । । विषूच्यलसकच्छर्दिगर्भवीसर्पपाण्डवः । अन्ये च मिथ्योपान्तास्तैर्दोषा वक्षसि स्थिताः । । ऊर्ध्वं शोफमधो बस्तौ मध्ये कुर्वन्ति मध्यगाः । सर्वाङ्गगाः सर्वगतं प्रत्यषु तदाश्रयाः । । 
                                                          ( अ . हृ . नि . १३ / २५ - २९

निज शोथ के हेतूओं का विस्तृत वर्णन चरक ने  सूत्रस्थान के त्रिशोथीय अध्याय में किया है , वे निम्न प्रकार से है । स्नेहन , स्वेदन , वमन , विरेचन , आस्थापन अनुवासन बस्ति , शिरोविरेचन आदि उपचार विधीवत न करना । संसर्जनाम का विधीवत पालन न करना । सतत व्याधी ग्रस्त रहना । उपवास करने से और पंचकर्मो का मिथ्यायोग आदि कारणों से शरीर क्षीण हो जाना । अतिमात्रा में अम्ल एवं लवण रस प्रधान और गुरु , शीत , तीक्ष्ण एवं उष्ण गुण के पदार्थों का सेवन करना । अतिमात्रा में क्षारद्रव्यों का या पिष्टमय पदार्थों का सेवन करना । फल , हारित शाक , राग ( आचार , चटनी आदि द्रव्य ) , दही , हरितक , मद्य , मन्दक ( अपक्व दही ) , विरुढधान्य , नवान्न , शमीधान्य ( उडीद , मटर आदि ) का सेवन करना । आनुप , ग्राम्य , शुष्क मांस तथा जलज प्राणीयों का मांस तथा मछली का सेवन करना । दिवास्वाप तथा रात्री जागरण करना । मृत्तिका का सेवन करना । अजीर्णावस्था में श्रम तथा मैथुन करना | अतिचंक्रमण ( पैदल चलना ) , शीघ्र यानगमन से क्षोभ होना । वेग विधारण : - छर्दि , क्षवथू , उद्गार , शुरु , वात , पुरीष आदि वेगों को अधिक काल तक धारन करना ।
कास , श्वास , शोष , भगन्दर , कुष्ठ , पिडका , अतिसार , अर्श , उदर , रक्तप्रदर , ज्वर , विसुचिका , अलसक , छर्दि आदि रोगों से पीड़ित रहना । गर्भपीडा : - गर्भस्राव , गर्भपात , गर्भिणी विषमयता आदि से पीड़ित होना । सुतिका द्वारा मिथ्या आहार - विहार का सेवन करना । विसर्प , पाण्डू तथा अन्य रोगों की सम्यक् चिकित्सा न करना ।
शोथ के स्थान :
उर : स्थितैरुर्ध्वमधस्तु वायोः स्थानस्थितैर्मध्यगतैस्तु मध्ये । सर्वाङ्गगः सर्वगतैः क्वचित्स्थैर्दोषैः क्वचित् स्याच्छवयथुस्तदाऽऽख्यः । । 
                 ( च . चि . १२ / ९ )
दोषाः श्वयथुमूर्ध्व हि कुर्वन्त्यामाशस्थिताः । पक्वाशयस्था मध्ये तु वर्चःस्थानगतास्त्वधः । । कृत्स्नदेहमनुप्राप्ताः कुर्यः सर्वसरं तथा ।
                        ( सु . चि . २३ / ६ - ७ )
प्रकोपित दोष उर : स्थान में ( आमाशय - सुश्रुत ) में होनेपर शोथ ऊर्ध्वजत्रुगत स्थान में उत्पन्न होता है । जब दोष मध्य शरीरमें स्थित रहते है तब शोथ मध्यशरीर में उत्पन्न होता है | और जब दोष सर्वांगगत होते है तब सार्वदैहिक शोथ उत्पन्न होता है । प्रकोपित दोषों के स्थानसंश्रय के अनुसार शोथ उत्पत्ति का स्थान निम्न प्रकार से होता है | दोष बस्ति स्थानगत होने पर शरीर के अधो भाग में ( पक्वाशय - सुश्रुत ) शोथ उत्पन्न होता है ।
शोथ की संप्राप्तिःबाह्याः सिराः प्राप्य यदा कफासृस्पित्तानि सन्दूषयतीह वायुः । तैर्बद्धमार्गः स तदा विसर्पत्युत्सेधलिङ्गं श्वय करोति । । 
                          ( च . चि . १२ / ८ )
 ते पुनर्यथास्वं हेतुव्यञ्जनैरादावुपलभ्यन्तेनिजव्यञ्जनैकदेशविपरीतैः ,बन्धमन्त्रागदप्रलेपप्रतापनिर्वापणासिभिशचोपक्रमैरुपक्रम्स प्रशान्तिमापद्यन्ते । । 
                 ( च . सू . १८ / ५ ) 
पित्तरक्तकफान् वायुर्दुष्टो दुष्टान् बहिःसिराः ।         नीत्वा रुद्धगतिस्तैर्हि कुर्यात्वङ्मांससंश्रयम् । । उत्सेधं संहतं शोथं तमाहुर्निचयादतः । सर्व हेतुविशेषैस्तु रुपभेदान्नवात्मकम् । । दोषैः पृथग्द्वयैः सर्वैरभिघाताद्विषादपि ।
             ( अ . हृ . नि . १३ / २१ - २२
दूषित वात प्रकोपित कफ , पित्त और रक्त को शरीर के बाह्य सिराओं में उदिरीत करता है | पित्त , रक्त और कफ इन तीनों की संचिती त्वचा और मांस के अन्दर होती है । इस अवरोध से वायु अधिक प्रकोपित हो जाती है यह अत्याधिक प्रकोपित हुआ वायु त्वक् स्थान में उदकधातु को अपकर्षित करके शोथ उत्पन्न करता है । अवरोधजन्य वात प्रकोप की यह सम्प्राप्ति निरंतर बढ़ते रहने से धीरे - धीरे शोथ सार्वदैहिक रुप धारण कर लेता है । शोथ की उत्पत्ति वात , पित्त और कफ तीनों दोष एकसाथ ( युगपत् ) मिलकर करते है , इस लिए सभी प्रकार के शोथ त्रिदोष होते है । शोथ की अंशांश संप्राप्तिः दोष
वात : व्यान
पित्तःभ्राजक
कफ : क्लेदक
दूष्यः रस व उदक धातु
अग्निः जाठराग्निमांद्य
दुष्ट स्रोतसः उदकवह
स्रोतोदुष्टीः संग और विमार्ग गमन
ख वैगुण्यः त्वचा
उद्भवस्थानः आमाशय
अधिष्ठानः त्वचा संचरण
स्थानः रसवाहिनी दशधमनीओं मार्फत सार्वदैहिक
रोगमार्गः बाह्य व्यक्तिः शोथ भेद ( ५ ) : एकदोषज - ३ , सन्निपातज - १ , आगन्तुज - १ स्वभावः चिरकारी साध्यासाध्यत्व : साध्यः नया , एकदोषज असाध्यः मर्म दुष्टिजन्य , उपद्रवयुक्त , परिस्रावी शोथ के पूर्वरुप : ऊष्मा तथा स्याद् दवथुः सिराणामायाम इत्येव च पूर्वरुपम् ।सर्वस्त्रिदोषोऽधिकदोषलिङ्गैस्तच्छब्दमभ्येति भिषग्जितं च । ।                                                                  ( च . चि . १२ / १० )
 तत्पूर्वरुपं दवथुः सिरायामोऽङ्गगौरवम् ।
                             ( अ . ह . नि . १३ / ३० )
 दवथु अर्थात नेत्रादि अवयवों में तीव्र ऊष्मा अनुभव करना । सिराओं में खिंचाव उत्पन्न होना | और अंगों में भारीपन महसुस करना ये शोथ के पूर्वरुप है ।

शोथ के प्रकार :
त्रयो शोथा भवन्ति वातपित्तश्लेष्मनिमित्ताः ते पुनर्द्विविधा निजागन्तुभेदेन । । 
                                         ( च . सू . १८ / ३ )
 षड्विधोऽवयवसमुत्थः शोफोऽभिहितो लक्षणतः प्रतीकारतश्च , सर्वसरस्तु पञ्चविधः , तद्यथा वातपित्तश्लेष्मसन्निपातविषनिमित्तः । । 
                                       ( सु . चि . २३ / ३ )
प्रकृतिभिस्ताभिस्ताभिर्भिद्यमानो द्विविधस्त्रिविधश्चतुर्विधः सप्तविधोऽष्टविधश्च शोथ उपलभ्यते ; पुनश्चैक एव उत्सेधसामान्यादित् । ।
                                             ( च . सू . १८ / ८ )
 हेतुविशेषस्तु रुपभेदान्नवात्मकम् । । दोषैः पृथग्द्वयैः सर्वैरभिघाताद्विषादपि । 
                                 ( अ . हृ . नि . १३ / २२ )
१ ) एकविधः उत्सेध यह सामान्य लक्षण अनुसार २ ) द्विविध : १ ) नीज २ ) आगन्तुजः
३ ) त्रिविध १ ) वातज , २ ) पित्तज , ३ ) कफज ४ ) चतुर्विधः १ ) वातज , २ ) पित्तज , ३ ) कफज ,
 ४ ) आगन्तुज 
५ ) सप्तविध : १ ) वातज , २ ) पित्तज , ३ ) कफज , ४ ) वातपित्तज ५ ) वातकफज कफपित्तज
५ ) सप्तविधः १ ) वातज , २ ) पित्तज , ३ ) कफज , ४ ) वातपित्तज , ५ ) वातकफज , ६ ) कफपित्तज ,                    ७ ) सन्निपातज , 
६ ) अष्टविध : १ ) वातज , २ ) पित्तज , ३ ) कफज , ४ ) वातपित्तज , ५ ) वातकफज , ६ ) कफपित्तज , 
७ ) सन्निपातज ,
 ८ ) आगन्तुज ७ ) नवविध : १ ) वातज , २ ) पित्तज , ३ ) कफज , ४ ) वातपित्तज , ५ ) वातकफज , ६ ) कफपित्तज , ७ ) सन्निपातज , ८ ) आगन्तुज , ९ )
   विषज शोफास्तु गात्रावयवाश्रिता ये ते स्थानदूष्याकृतिनामभेदात् । अनेकसङ्ख्याः कतिचिच्च तेषां निदर्धनार्थ गदतो निबोध । ।
                               ( च चि . १२ / ७४ )
शोथ गात्रावयव के आश्रय से उत्पन्न होता है | शोथ के आश्रय स्थान के अनुसार दूष्य , आकृति ( लक्षण ) , अनेक प्रकार के होते है इस लिए शोथ के अनेक भेद होते है । इस तरह से स्थानिक शोथ के वर्णन में शोथ के प्रकार अनेक हो सकते है , ऐसा विचार चरकाचार्य ने प्रस्तुत किया है ।
विधि भेद से शोथ के प्रकार :
द्विधा वा निजमागन्तुं सर्वाङ्गैकाङ्गजं तम् । । पृथून्नतग्रथितताविशेषैश्च त्रिधा विदुः ।

विधि भेद से शोथ के निम्न प्रकार होते है ।
 द्विविध प्रकार : १ ) नीज ( दोषज कारणों से ) २ ) आगन्तुज ( आघातादि बाह्य कारणों से ) त्रिविध प्रकार : १ ) पृथु ( फैला हुआ ) २ ) उन्नत ( उभार युक्त ) 3 ) ग्रथित ( अत्याधिक संहनन यक्त )
शोथ के सामान्य लक्षण :
 सगौरवं स्यादनवस्थितत्वं सोत्सेधमूष्माऽथ सिरातनुत्वम् । सलोमहर्षश्च विवर्णता च सामान्यलिङ्गं श्वयथोः प्रदिष्टम् । ।                                      ( च . चि . १२ / ११ )
 शोथ के स्थान में गौरव उत्पन्न होता है ।
 अनवस्थितत्व : - एक स्थान से दूसरे स्थान तक शोथ फैलता है दोष और दूष्यों के संहनन से उत्सेध उत्पन्न होता शोथ के स्थान में रसरक्तसंवहन बढ़ जाने से ( पित्त प्रकोप से ) उष्मावृद्धि हो जाती है इस कारण स्पर्श करने पर स्थानिक त्वचा उष्ण लगती है | स्थानिक त्वचा में रसरक्तसंवहन बढ़ जाने से तथा वात एवं पित्त के प्रकोप से सिरा तनुत्व ( पतलापन ) उत्पन्न होता है । प्रकोपित वायु से रोमहर्ष उत्पन्न होता है । शोथ के स्थान में वैवर्ण्य उत्पन्न होने से स्थानिक त्वचा का प्राकृत वर्ण बदल जाता है । 

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